भूली-बिसरी यादें
पढ़ें समझें राय दें अति महत्वपूर्ण - आलोचना जरूर करें।
Thursday, July 7, 2022
जीवन
Sunday, February 6, 2022
ईजा का त्याग
Saturday, February 5, 2022
फागुन की आहट
Tuesday, January 11, 2022
पुरखों की राह पर
Thursday, November 5, 2020
यूँही कोई बरगद नहीं होता
Monday, May 13, 2019
माँ
माँ
तू सुख, तू खुशी
तू त्याग, तू समर्पण
तू दुवा, तू दवा
तू फुलवारी, तू बचपन की यारी
तू ख्वाब, तू हकीकत
तू होली, तू दीवाली
तू मक्का, तू मदीना
तू वेद, तू पुराण
तू गीता, तू रामायण
तू रब, तू ही सब।
दिनाँक - 12 मई 2019
Tuesday, March 26, 2019
हे पिता! मुझे माफ़ करना
हाथ की सबसे छोटी
ऊँगली को जोर से पकड़कर
जिसके साथ चलना सीखा
हँसना सीखा रोना सीखा
उस पिता से अंतिम वक़्त
क्या! तक नहीं कह पाया
कहे बिना कभी रह भी नहीं पाया
वह सब; जिसकी वे उम्मीद
नहीं करते थे और वह भी
जिसे मैं जानबूझकर नहीं कहता था
मैंने अदब से
कभी कहा नहीं या फिर
उन्होंने कभी सुना/समझा नहीं
गौत की लकड़ी की तरह अकड़
इधर भी थी और उधर भी
होती भी क्यों ना
मैं अंश-वंश भी तो
उनका ही था
पर हमेशा यह कसक रहेगी कि
काश! मैं कुछ कर पाता
कुछ सुन/समझ पाता
उनके अंतिम क्षणों के वह भाव
अंतिम ईच्छा, अंतिम बात, अंतिम सांस
काश! मैंने कभी कहा होता
मैं हूँ ना आप फिक्र मत करो
कभी उनका भार हल्का किया होता
जिसे ढोकर वह जी रहे थे
और जीते-जीते एक दिन
सुनसान रास्ते से
बिना किसी को बताये
चुपके से चले गए घर से
बिना कुछ कहे भी
हमेशा की तरह बहुत कुछ कहकर
इस बार कभी नहीं आने को।
हे पिता! मुझे माफ़ करना।
दीपक पनेरू
दिनाँक - 26 मार्च 2019
Friday, January 4, 2019
बेवजह
जब कोई बेवजह
हाथ की छठी उँगली की तरह
लटक कर बिना मतलब के
आपका रक्त चूसता हो
तब लगता है कि
किष्किन्धा में स्थित
ऋष्यमूक पर्वत पर
चला जाऊं
या फिर कहीं खो जाऊं
परम पावन सरस्वती की तरह
इस जग से यादों में रहने को।
दीपक पनेरू
दिनाँक - 02 जनवरी 2019
Monday, December 31, 2018
अतीत से मिलन
धीरे-धीरे सुलगते तेंदू के
पत्ते की तरह
राख में परिवर्तित होकर
बन्द मुट्ठी से
फिसलते रेत की तरह
केवल कुछ धूल बचाकर
हथेली पर रखे बर्फ के
टुकड़े का पानी बनने तक
निकल जाता है वर्तमान
अपने अतीत से मिलने को
यह साल भी हमेशा की तरह
निकल जायेगा हाथ से अतीत बनकर
छोड़ जाएगा कुछ यादें
कुछ बातें, कुछ किस्से
कुछ अनुभव अपनी याद दिलाने को
दीपक पनेरू
दिनाँक-31 दिसम्बर 2018
Thursday, January 24, 2013
राजा से रहट भला फिर भला पधान
(जहा आज लडकियों की निर्ममता से हत्या की जा रही उनका शोषण किया जा रहा है वही दादी (आमा) जी के वक्त में लोग इस तरह के जुमले बनाकर लोगो को बेटी के महत्त्व के बारे में समझाया करते थे, पुरुष प्रधान समाज में सदा स्त्रियों को दोयम दरजे का माना गया है, या फिर ये दिखाने की चेष्टा की गयी है, विरोध करने वाले को युगों युगों से प्रताड़ित किया जाता रहा है, कब बदलेगी सोच तथा ये समाज पता नहीं ??)
Friday, October 14, 2011
Thursday, October 13, 2011
दुश्वारी
चुभन सी पैदा करता है दिल में,
न जाने क्यों दिल धडकता है जोरो से,
बिना किसी जरुरत के,
ओ भी यू गुजरते है सामने से,
अजनबियों की तरह जैसे,
सूरज ढलता है शाम होते होते ।
Monday, September 26, 2011
आबरू
खुद बेआबरू हो गए कैसे लिए ये फैसले,
तन थका मन रोया, साँस अटकती चली गयी,
हो चुका बर्बाद मैं अब चाहता हू जिन्दगी नयी,
तू आस है मेरी इसलिए अपनी आबरू बेचता हू,
मेरे इस खून से में तेरे बाग को सीचता हू.....दीपक पनेरू
संशय
हम बहक रहे है, इस शहर की आबो हवा में,
ये जमी ये आशमा फिर से मुझे,
उस तख़्त तक पंहुचा दे,
जहा से मै चला था खुद को बदलने...?
ये हो न सका.....!!!!! ---- दीपक पनेरू
रोते हुए पहाड़ सिसकते हुए लोग
रोते हुए पहाड़ सिसकते हुए लोग,
हँसते हुए हम और देखते हुए लोग,
जो कुछ कर सकते थे कुछ कर न सके,
जिन्होंने किया ओ कुछ था नहीं,
रोते रहे अपने की साथ ले चलो,
हमने कहा देर हो रही है इंतजार करो.......
किसका और कब तक न उन्होंने पूछा न हमने बताया,
आखिर क्यों....??????? ---दीपक पनेरू
Wednesday, December 29, 2010
नव वर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनाएं
नव वर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनाएं
इस दौर की दरियादिली,
उस दौर से कुछ और है,
इंतजार की इन्तहा,
इस दौर में भी सिरमौर है,
वक़्त भी चलता गया,
और राही भी चलते रहे,
राहें और मंजिलें,
बस ये ही बदलते रहे,
तू वक़्त भी अच्छा है,
ओ वक़्त भी गुलजार था,
मुझे तुमसे भी प्यार है,
मुझे उससे भी प्यार था,
जो चला गया है छोड़कर,
उसका जाना भी स्वीकार है,
तू जल्दी आजा नव वर्ष,
बस तेरा ही इन्तजार है,
बस तेरा ही इन्तजार है,
Thursday, November 18, 2010
दस साल का उत्तराखंड
आज विकास के लिए, फिर रोता मेरा पहाड़ है,
कही नदी बनी कहर, तो कही पहाड़ो की दहाड़ है,
दस साल का उत्तराखंड, अब लगा है बोलने,
धीरे धीरे पर अब सब, राज लगा है खोलने,
कि किसने बसाया है इसे, कौन उजाड़ने को है तैयार,
कौन बना बैठा है दुश्मन, कौन बना बैठा है प्यार,
शिक्षा का बाजारीकरण, और गरीबी कि मार,
फिर पहाड़ो से पलायन, फिर वही अत्याचार,
कोई दबा स्कूल के नीचे, कोई नदियों का बना निवाला,
कोई गिरा चट्टानों से और, कोई नहीं देखने वाला,
बस साल दर साल, इसके खंड खंड होते रहे,
अपनी पवित्र देव भूमि को, अब पवित्र कौन कहे ?
चोरी यहाँ मक्कारी यहाँ, हर चीज कि बाजारी यहाँ,
पानी भी लगा है बिकने, गरीब आदमी जाए कहा ?
चीख चीख कर ये सड़के, और छोटे छोटे रास्ते,
दम तोड़ रहे है सब , कोई जल्दी कोई आस्ते,
क्या निशंक क्या खंडूरी, विकाश से रही सभी कि दूरी,
अपने लिए है लड़े है सब, कौन करे जरूरतें पूरी,
केंद्र से करें उधारी, इन पर उधारी का पाप चड़ा,
डकार गए विकाश का पैसा, कौन इनमें हक़ के लिए लड़ा,
इस पांच सौ करोड़ का, क्या हिसाब ये बताएँगे,
छीन लिए जिन गरीबो के आशियाने, क्या फिर से ये बसायेंगे,
टिहरी डूबाकर इनके मन को, अभी तक ना चैन मिला,
पता नहीं क्या डूबेगा अब, कोई शहर या कोई जिला,
"दीपक" यही अब सोचकर, क्या क्या इनके बारे में लिखे,
कुछ करनी कुछ करतूत इनकी, सारी करनी यही दिखे,
उत्तराखंड अब बचपन से , कुछ समझदार होने को आया है,
अब थोडा मुस्कराने दो इसे, नेताओं ने खूब सताया है,
Saturday, October 30, 2010
गुनाह
Thursday, October 14, 2010
नई किरन
उठो चलो अब देर हो गयी,
दादी बोली पोती से,
ठन्डे जल से मुह धोया और,
पोछा अपनी धोती से.
खाना खाओ माँ बोली,
चलो तैयार अब होना है,
आया सावन लाया खुशहाली,
नयी फसल अब बोना है,
दीदी बोली भैय्या से,
स्कूल चलो अब जाना है,
वही बोझ भरी बस्ते का,
वही रिक्शे वाला नाना है,
स्कूल पहुच तब छोटू बोला,
मजा बहुत अब आयेगा,
खेलूँगा नए दोस्तों के संग मैं,
ख़ुशी-कुशी दिन कट जायेगा,
स्कूलों में अब आई बहारें,
खिली हरियाली खेतों में,
"नई किरन" जब पड़ी पौधों पर,
चमके ऐसे जैसे पानी रेत में.
बदला रंग अब सारे घरों का,
मस्ती हो गयी दूर-दूर,
ऑ खेलने की हसरतें,
ओ नींद का आना चूर चूर,
चलो चलें स्कूल पढ़े अब,
सपने करें पूरे अपने,
हसरतें अपनी सोची समझी,
माँ बाप के अधूरे सपने,