Thursday, July 7, 2022

जीवन

घास के मैदानों सा है जीवन
जो जितना सुंदर
ओ उतनी जल्दी खत्म
पल भर में उजाड़ और वीरान

समय बहुत बलवान है
वह यौवन को चौपट कर जाता है
बिना किसी मतलब के 
जैसे दीमक अंदर ही अंदर
खा जाती है एक बड़े से दरख़्त को
जो एक हल्के हवा के झौंके से
गिर पड़ता है धम्म कर 
जैसे कोई भारी पत्थर छूट गया हो
किसी बंजर दरदरी चट्टान की कोख से।


दीपक पनेरू
07 जुलाई 2022

Sunday, February 6, 2022

ईजा का त्याग

ईजा ने मंगाया था 
मूव अपने घुटनों के 
ताकि घुटनों के दर्द कम हो सके

मुझे समय से नाश्ता दे सके
उसके लिए ईजा सुबह
जल्दी उठ जाती है

एक दिन
हल्का दर्द महसूस किया मैंने
खुद के पैरों में 
और ईजा से कहा
ईजा ने अपना वाला
मूव मुझे दे दिया ये कहते हुए कि

च्यालों तुझे कुछ हो गया तो
मैं क्या करूँगी
इस बुढ़ापे के दर्द से 
मैं अपने आप मरूँगी 
इसे तू लगा ले

इसलिए कहता हूँ
ईजा महान है
ईजा के अहसान हम
कभी नही चुका सकते।

दिनाँक - 06 फरवरी 2022

Saturday, February 5, 2022

फागुन की आहट

सर्द रातें 
बर्फ के मध्यम उजाले में
चमकते पहाड़
खेतों पर खिली सरसों
और उन पर मँडराती मधुमक्खियां
दिन की गुनगुनी धूप ने 
अहसास करा दिया है कि
फागुन आने वाला है।

दिनाँक - 05 फरवरी 2022

Tuesday, January 11, 2022

पुरखों की राह पर

एक दिन मेरी इस जवानी का 
घमण्ड भी टूटेगा डाँसी पत्थर की तरह
उसी की तरह चूर-चूर हो जाएगा
यौवन भी जिस पर मैं कभी इतराया होऊँगा

उस लालिमा लिए चेहरे पर
झुर्रियां पड़ी होंगी लाचार बुढ़ापे की तरह
दाँत और आँत में सामंजस्य बिठाने की
जद्दोजहद कर रहा होगा मन

हाथों में कम्पन होगा 
जैसे किसी अपने का
अहित कर दिया हो अनजाने में
यह जानकर

बच्चे भी अपनी काया-माया को
समटने में व्यस्त होंगे
एक वक्त का खाना ना मिलने पर
ऐसा लग रहा होगा जैसे कितने दिनों से
ना मिले हो भर पेट भोजन

और तपा दोगे एक दिन मुझे भी
तिथान के उन अधफूटे पत्थरों को
फोड़ने के लिए
जो कभी तपे होंगे मेरे पुरखों की
अन्त्येष्टि की आग में।



दीपक पनेरू
30 सितम्बर 2021

Thursday, November 5, 2020

यूँही कोई बरगद नहीं होता

यूँही कोई बरगद नहीं होता साहब!

उसके लिए ईजा की तरह
पूस की रातों में
खुले आसमान के नीचे
बच्चों के गीले कपड़ों में
आँगड़ी और घाघरी में सोना पड़ता है।

बुबू के ठिनके से 
बुके की रुई में 
आग लगने तक का 
इंतजार करना होता है।

एक घस्यारी के खुद के 
वजन के बराबर 
निरगंड भेवों, चट्टानों से
मखमली घास लेकर
सकुशल घर आना पड़ता है।

एक बैनी के शादी से पहले
सारे खून-पसीने को एक कर
अपने ईजा की मदद के लिए
ऊँचे पहाड़ों से गाड़-गधेरों तक
पूरी जमीन ऊबर करनी होती है।

एक आमा का
जिसकी आँखें और कान कमजोर हों
उनका तीन महीने की पोथी को
इशारों से समझकर 
उसकी भूख मिटाने की 
कोशिश करने तक का धैर्य रखना होता है।

एक चिलम पीते बूढ़े व्यक्ति
का आँगन में खाँसने भर से
घर में होने वाली हलचल
खेतों में लिहो लिहो में
बदलने तक का इंतजार करना होता है।


दीपक पनेरू
27-10-2020

Monday, May 13, 2019

माँ

माँ

तू सुख, तू खुशी
तू त्याग, तू समर्पण
तू दुवा, तू दवा
तू फुलवारी, तू बचपन की यारी
तू ख्वाब, तू हकीकत
तू होली, तू दीवाली
तू मक्का, तू मदीना
तू वेद, तू पुराण
तू गीता, तू रामायण
तू रब, तू ही सब।

दिनाँक - 12 मई 2019

Tuesday, March 26, 2019

हे पिता! मुझे माफ़ करना

हाथ की सबसे छोटी
ऊँगली को जोर से पकड़कर
जिसके साथ चलना सीखा
हँसना सीखा रोना सीखा

उस पिता से अंतिम वक़्त
क्या! तक नहीं कह पाया
कहे बिना कभी रह भी नहीं पाया

वह सब; जिसकी वे उम्मीद
नहीं करते थे और वह भी
जिसे मैं जानबूझकर नहीं कहता था

मैंने अदब से
कभी कहा नहीं या फिर
उन्होंने कभी सुना/समझा नहीं
गौत की लकड़ी की तरह अकड़
इधर भी थी और उधर भी

होती भी क्यों ना
मैं अंश-वंश भी तो
उनका ही था

पर हमेशा यह कसक रहेगी कि
काश! मैं कुछ कर पाता
कुछ सुन/समझ पाता
उनके अंतिम क्षणों के वह भाव
अंतिम ईच्छा, अंतिम बात, अंतिम सांस

काश! मैंने कभी कहा होता
मैं हूँ ना आप फिक्र मत करो
कभी उनका भार हल्का किया होता
जिसे ढोकर वह जी रहे थे

और जीते-जीते एक दिन
सुनसान रास्ते से
बिना किसी को बताये
चुपके से चले गए घर से

बिना कुछ कहे भी
हमेशा की तरह बहुत कुछ कहकर
इस बार कभी नहीं आने को।

हे पिता! मुझे माफ़ करना।

दीपक पनेरू
दिनाँक - 26 मार्च 2019

Friday, January 4, 2019

बेवजह

जब कोई बेवजह
हाथ की छठी उँगली की तरह
लटक कर बिना मतलब के
आपका रक्त चूसता हो

तब लगता है कि
किष्किन्धा में स्थित
ऋष्यमूक पर्वत पर
चला जाऊं

या फिर कहीं खो जाऊं
परम पावन सरस्वती की तरह
इस जग से यादों में रहने को।

दीपक पनेरू
दिनाँक - 02 जनवरी 2019

Monday, December 31, 2018

अतीत से मिलन

धीरे-धीरे सुलगते तेंदू के
पत्ते की तरह
राख में परिवर्तित होकर

बन्द मुट्ठी से
फिसलते रेत की तरह
केवल कुछ धूल बचाकर

हथेली पर रखे बर्फ के
टुकड़े का पानी बनने तक

निकल जाता है वर्तमान
अपने अतीत से मिलने को
यह साल भी हमेशा की तरह
निकल जायेगा हाथ से अतीत बनकर
छोड़ जाएगा कुछ यादें
कुछ बातें, कुछ किस्से
कुछ अनुभव अपनी याद दिलाने को

दीपक पनेरू
दिनाँक-31 दिसम्बर 2018

Thursday, January 24, 2013

राजा से रहट भला फिर भला पधान

राजा से रहट भला फिर भला पधान, 
चेला (लड़का) से चेली (लड़की) भली जो रखे तीन कुलों (पुश्त) तक नाम ....

 (जहा आज लडकियों की निर्ममता से हत्या की जा रही उनका शोषण किया जा रहा है वही दादी (आमा) जी के वक्त में लोग इस तरह के जुमले बनाकर लोगो को बेटी के महत्त्व के बारे में समझाया करते थे, पुरुष प्रधान समाज में सदा स्त्रियों को दोयम दरजे का माना गया है, या फिर ये दिखाने की चेष्टा की गयी है, विरोध करने वाले को युगों युगों से प्रताड़ित किया जाता रहा है, कब बदलेगी सोच तथा ये समाज पता नहीं ??)

Friday, October 14, 2011

राही

हम तो निकले थे दूर तलक जाने को,
पर रास्ता खत्म हो गया चलते चलते।

Thursday, October 13, 2011

दुश्वारी

ठंडी सी एक हवा का झौका,
चुभन सी पैदा करता है दिल में,
न जाने क्यों दिल धडकता है जोरो से,
बिना किसी जरुरत के,
ओ भी यू  गुजरते है सामने से,
अजनबियों की तरह जैसे,
सूरज ढलता है शाम होते होते ।

Monday, September 26, 2011

आबरू

ये जमीं तेरी आबरू बचाने को थे चले,
खुद बेआबरू हो गए कैसे लिए ये फैसले,
तन थका मन रोया, साँस अटकती चली गयी,
हो चुका बर्बाद मैं अब चाहता हू जिन्दगी नयी,
तू आस है मेरी इसलिए अपनी आबरू बेचता हू,
मेरे इस खून से में तेरे बाग को सीचता हू.....दीपक पनेरू

संशय

हम बहक रहे है, इस शहर की आबो हवा में,
ये जमी ये आशमा फिर से मुझे,
उस तख़्त तक पंहुचा दे,
जहा से मै चला था खुद को बदलने...?
ये हो न सका.....!!!!! ---- दीपक पनेरू

रोते हुए पहाड़ सिसकते हुए लोग

रोते हुए पहाड़ सिसकते हुए लोग,
हँसते हुए हम और देखते हुए लोग,
जो कुछ कर सकते थे कुछ कर न सके,
जिन्होंने किया ओ कुछ था नहीं,
रोते रहे अपने की साथ ले चलो,
हमने कहा देर हो रही है इंतजार करो.......

किसका और कब तक न उन्होंने पूछा न हमने बताया,
आखिर क्यों....??????? ---दीपक पनेरू

Wednesday, December 29, 2010

नव वर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनाएं



नव वर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनाएं


इस दौर की दरियादिली,
उस दौर से कुछ और है,
इंतजार की इन्तहा,
इस दौर में भी सिरमौर है,


वक़्त भी चलता गया,
और राही भी चलते रहे,

राहें और मंजिलें,
बस ये ही बदलते रहे,

तू वक़्त भी अच्छा है,

ओ वक़्त भी गुलजार था,
मुझे तुमसे भी प्यार है,
मुझे उससे भी प्यार था,

जो चला गया है छोड़कर,
उसका जाना भी स्वीकार है,
तू जल्दी आजा नव वर्ष,

बस तेरा ही इन्तजार है,

बस तेरा ही इन्तजार है,


Thursday, November 18, 2010

दस साल का उत्तराखंड



आज विकास के लिए, फिर रोता मेरा पहाड़ है,
कही नदी बनी कहर, तो कही पहाड़ो की दहाड़ है,

दस साल का उत्तराखंड, अब लगा है बोलने,
धीरे धीरे पर अब सब, राज लगा है खोलने,

कि किसने बसाया है इसे, कौन उजाड़ने को है तैयार,
कौन बना बैठा है दुश्मन, कौन बना बैठा है प्यार,

शिक्षा का बाजारीकरण, और गरीबी कि मार,
फिर पहाड़ो से पलायन, फिर वही अत्याचार,

कोई दबा स्कूल के नीचे, कोई नदियों का बना निवाला,
कोई गिरा चट्टानों से और, कोई नहीं देखने वाला,

बस साल दर साल, इसके खंड खंड होते रहे,
अपनी पवित्र देव भूमि को, अब पवित्र कौन कहे ?

चोरी यहाँ मक्कारी यहाँ, हर चीज कि बाजारी यहाँ,
पानी भी लगा है बिकने, गरीब आदमी जाए कहा ?

चीख चीख कर ये सड़के, और छोटे छोटे रास्ते,
दम तोड़ रहे है सब , कोई जल्दी कोई आस्ते,

क्या निशंक क्या खंडूरी, विकाश से रही सभी कि दूरी,
अपने लिए है लड़े है सब, कौन करे जरूरतें पूरी,

केंद्र से करें उधारी, इन पर उधारी का पाप चड़ा,
डकार गए विकाश का पैसा, कौन इनमें हक़ के लिए लड़ा,

इस पांच सौ करोड़ का, क्या हिसाब ये बताएँगे,
छीन लिए जिन गरीबो के आशियाने, क्या फिर से ये बसायेंगे,

टिहरी डूबाकर इनके मन को, अभी तक ना चैन मिला,
पता नहीं क्या डूबेगा अब, कोई शहर या कोई जिला,

"दीपक" यही अब सोचकर, क्या क्या इनके बारे में लिखे,
कुछ करनी कुछ करतूत इनकी, सारी करनी यही दिखे,

उत्तराखंड अब बचपन से , कुछ समझदार होने को आया है,
अब थोडा मुस्कराने दो इसे, नेताओं ने खूब सताया है,



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Saturday, October 30, 2010

गुनाह



तेरी मजबूरियों को हम गुनाह समझ बैठे,
खुद से की थी वफ़ा इस कदर....
इम्तेहान लेती रही जिंदगी दर-ब-दर,
तेरी
गलतियों
को गुनाह समझकर........

Thursday, October 14, 2010

नई किरन


दिनांक 12-07-2010
नई किरन


उठो चलो अब देर हो गयी,
दादी बोली पोती से,
ठन्डे जल से मुह धोया और,

पोछा अपनी धोती से.


खाना खाओ माँ बोली,

चलो तैयार अब होना है,

आया सावन लाया खुशहाली,

नयी फसल अब बोना है,


दीदी बोली भैय्या से,

स्कूल चलो अब जाना है,

वही बोझ भरी बस्ते का,

वही रिक्शे वाला नाना है,


स्कूल पहुच तब छोटू बोला,

मजा बहुत अब आयेगा,
खेलूँगा नए दोस्तों के संग मैं,

ख़ुशी-कुशी दिन कट जायेगा,


स्कूलों में अब आई बहारें,

खिली हरियाली खेतों में,

"नई किरन" जब पड़ी पौधों पर,
चमके ऐसे जैसे पानी रेत में.


बदला रंग अब सारे घरों का,

मस्ती हो गयी दूर-दूर,

ऑ खेलने की हसरतें,

ओ नींद का आना चूर चूर,


चलो चलें स्कूल पढ़े अब,

सपने करें पूरे अपने,

हसरतें अपनी सोची समझी,
माँ बाप के अधूरे सपने,

Monday, October 4, 2010

कुछ अनछुए पल

स्वरचित
एक छोटी सी कोशिश की है मैंने

उनकी यादों को दिल से लगाये बैठे थे,
अपने रोते हुए दिल को हसाए बैठे थे,
सुनहरे सपनो को सोचा पूरा करू,
तो देखा ओ किसी और को अपना बनाये बैठे थे.

मैं रहू न रहू पर यादों का सफ़र रहेगा,
कोई पराया तो कोई अपना रहेगा,
हम तो बिन पानी के मछली की तरह है,
तुम दूर हुए तो बस यादों का सपना रहेगा,

तुम्हारी यादों को चरागों की तरह,
तुम्हारी बातों को दिल से लगाकर,
जीने को कोशिश करता हूँ पर,
साँस अटकती है तुम्हारे बिना,
कभी अन्दर जाकर, कभी बाहर आकर.


कभी उनको कभी उनकी यादों को ,
कभी गुस्से को कभी उनकी बातों को,
दिल से लगाये बैठे है, कभी खुश तो कभी,
उनके तस्वीर के साथ हम मुरझाये बैठे है,
दिल तो करता है एक बार-
फिर मिलने की कोशिश करू,
पर ओ इससे अनजान हमको अपनों मैं भी,
पराया बनाये बैठे है.........